महाभारत युद्ध से पहले जब अर्जुन ने युद्ध लड़ने से मना कर दिया था, तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समझाने के लिए गीता का ज्ञान दिया था। श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि कर्म न करने का विचार छोड़ देना चाहिए, क्योंकि कर्म न करना भी एक कर्म ही है। इसका फल हमें हानि और अपयश के रूप में मिलता है।
गीता के तीसरे अध्याय के पांचवें श्लोक में श्रीकृष्ण कहते हैं कि-
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यश: कर्म सर्व प्रकृतिजैर्गुणै:।।
इस श्लोक का अर्थ यह है कि कोई भी प्राणी एक पल भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता है। हर एक जीव इस प्रकृति के अधीन है और प्रकृति अपने अनुसार सभी जीवों से कर्म करवा ही लेती है। कर्म के अनुसार ही हर व्यक्ति को परिणाम भी प्रकृति ही देती है।
जो लोग असफलता या बुरे परिणामों के डरकर ये सोचते हैं कि हम कुछ नहीं करेंगे तो हमारे साथ कुछ बुरा नहीं होगा, ये सोचना व्यर्थ है। क्योंकि, कुछ भी न करना भी, एक तरह का कर्म ही है। इसका कर्म फल हमें हानि और अपयश के रूप में मिलता है।
इसीलिए कभी भी आलस्य नहीं करना चाहिए, अपनी क्षमता, समझदारी के अनुसार ईमानदारी से कर्म करते रहना चाहिए। तभी हमारा कल्याण हो सकता है। जो लोग धर्म के अनुसार कर्म करते हैं, उन्हें सफलता जरूर मिलती है।
श्रीकृष्ण आगे कहते हैं कि-
यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।।
ये तीसरे अध्याय का सातवां श्लोक है। इसमें श्रीकृष्ण कहते हैं तो जो लोग इंद्रियों को वश में रखते हैं, निस्काम भाव से कर्म करते हैं, वे ही श्रेष्ठ होते हैं।
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