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अक्सर बाहरी दुनिया में किया गया अभिनय जैसा व्यवहार हमारे स्वभाव में उतरने लगता है। लोग दुनिया के सामने कुछ और होते हैं और अपने भीतर कुछ और। कई बार बाहरी दुनिया का तनाव हमारे भीतर तक उतर आता है। हमारा मूल स्वभाव कहीं खो जाता है। हम अपनेआप में नहीं रहते।
कई लोग गुस्से का अभिनय करते हैं, दफ्रतर में, मित्रों में या सहयोगियोयं में लेकिन वो गुस्सा कब खुद उनका स्वभाव बन जाता है वे समझ नहीं पाते। समय गुजरने के साथ ही व्यवहार बदलने लगता है। हमेशा प्रयास करें कि दुनियादारी की बातों में आपका अपना स्वभाव कहीं छूट ना जाए। आप जैसे हैं, अपनेआप को वैसा ही कैसे रखें, इस बात को समझने के लिए थोड़ा ध्यान में उतरना होगा।
हम कभी-कभी क्रोध करते हैं लेकिन क्रोध हमारा मूल स्वभाव नहीं है। क्या किया जाए कि बाहरी अभिनय हमारे भीतरी स्वभाव पर हावी ना हो। क्रोध पहले व्यवहार में आता है फिर हमारा स्वभाव बन जाता है। क्रोध स्वभाव में आया तो सबसे पहले वो हमारी सोच को खत्म करता है, फिर संवेदनाओं को मारता है। संवेदनाहीन मानव पशुवत हो जाता है।
आइए, इस क्रोध को अपने स्वभाव में उतरने से कैसे रोका जाए, इस पर चर्चा करते हैं। बाहरी दुनिया को बाहर ही रहने दें। बाहरी दुनिया और भीतरी संसार के बीच थोड़ा अंतर होना चाहिए। ये अंतर लाने का सबसे सरल तरीका है, ध्यान। थोड़ा मेडिटेशन रोज करें। अपने परिवार के साथ समय बिताएं। थोड़ा समय खुद के लिए निकालें। एकांत में बैठें। किसी मंदिर या प्राकृतिक स्थान के निकट बैठें।
श्रीकृष्ण को देखिए, संसार भर के काम किए लेकिन खुद के लिए समय निकालते हैं। गोकुल या वृंदावन में जब रहे, थोड़ा समय खुद को जरूर देते। अकेले वन में या यमुना किनारे बैठकर बांसुरी बजाते हैं। संगीत हमारी संवेदनाओं को सिंचता है। ध्यान उन्हें दृढ़ बनाता है। एकांत उन्हें नवजीवन देता है। हम जब खुद को समय देंगे, खुद पर ध्यान देंगे तो फिर संसार का बाहरी आवरण, बाहर ही रहेगा। आप भीतर से वो ही रहेंगे जो आप हैं।
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